हरीश हांडे को 27 जुलाई से पहले ज़्यादा लोग नहीं जानते थे, लेकिन जब उनके काम के लिए उन्हें मैगसेसे पुरस्कार के लिए चुना गया, तो उनका नाम गांवों की सीमाओं को पार कर शहरों के गलियारों तक पहुंच गया.
पानी-पुरी बेचने वाली एक महिला से मिली सीख हरीश हांडे को सफलता की ऊंचाई तक ले गई.बीबीसी से बातचीत में उन्होंने बताया कि किस तरह से उस ग़रीब महिला की मजबूरी ने उन्हें ग़रीबों के लिए काम करने के लिए प्रोत्साहित किया.
उन्होंने कहा, “अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सीख मुझे बैंगलोर में पानी-पुरी बेचने वाली एक महिला से मिली. जब मैंने उन्हें सौर ऊर्जा से होने वाले लाभ के बारे में बताया तो उसने कहा कि महीने के 300 रुपए देना उसकी जेब पर बहुत भारी पड़ेगा, लेकिन रोज़ के दस रुपए देने में उन्हें कोई समस्या नहीं थी. उनकी बातें सुन कर मुझे लगा कि ग़रीबों तक तकनीक पहुंचाने के साथ साथ उन्हें वित्तीय अनाधीनता देना भी बहुत ज़रुरी है. मुझे लगा कि अगर मैं उस महिला को प्रतिदिन दस रुपए में चार घंटे के लिए बिजली पहुंचा सकता हूं, तो उसे फ़ायदा ही होगा क्योंकि वो कैरोसीन में 15 रुपए से ज़्यादा ख़र्च करती थी. और बस, वहीं से मेरे सफ़र की शुरुआत हुई. ”
भारत में करीब 70 प्रतिशत गांवों में बिजली नहीं है. सौर ऊर्जा के माध्यम पैदा होने वाली बिजली से जहां बच्चे दिन ढलने के बाद पढ़ाई कर सकते हैं, वहीं सिलाई-कढ़ाई का काम कर पैसा कमाने वाली महिलाओं और बीड़ी बनाने वाले मज़दूरों के लिए इसका मतलब है कि वो ज़्यादा देर तक काम कर सकते है और अच्छी कमाई कर सकते है.
हरीश हांडे
उन्होंने ये प्रयास वर्ष 1995 में शुरु किया और आज उनकी कंपनी कर्नाटक, केरल और गुजरात के लगभग डेढ़ करोड़ ग़रीबों तक बिजली पहुंचाती है. साथ ही उनकी इस मुहिम में ग्रामीण लोगों को भागीदार बनने के लिए उत्साहित किया जाता है.
पुरस्कार पाने की ख़ुशी तो उन्हें है, लेकिन इसके लिए श्रेय ख़ुद को न दे कर उनके साथ काम कर रहे कर्मचारियों को देते हैं.
ग़रीबों का सशक्तिकरण
हरीश हांडे ने बताया कि उनकी कंपनी ग्रामीण लोगों के घरों में सौर पैनल लगाती है, जो दिन में सूर्य की ऊर्जा को क़ैद करते हैं और दिन ढलने के बाद करीब पांच घंटों तक बिजली प्रदान करते हैं.उनका कहना था, “भारत में क़रीब 70 प्रतिशत गांवों में बिजली नहीं है. सौर ऊर्जा के माध्यम से शाम को बिजली मिलने से ग्रामीणवासियों की ज़िंदगी में सकारात्मक बदलाव आया है. जहां इस बिजली के होने से बच्चे दिन ढलने के बाद पढ़ाई कर सकते हैं, वहीं सिलाई-कढ़ाई का काम कर पैसा कमाने वाली महिलाओं और बीड़ी बनाने वाले मज़दूरों के लिए इसका मतलब है कि वो ज़्यादा देर तक काम कर सकते है और अच्छी कमाई कर सकते हैं.”

सौर ऊर्जा से पैदा हुई बिजली का इस्तेमाल कर रेशम के कोवे निकालते हुए ग्रामीण लोग
इसके लिए हरीश हांडे सरकार की ग़लत नीतियों को ज़िम्मेदार मानते हैं.
उनका कहना है, “हमारे देश में हर फ़ैसला दिल्ली में लिया जाता है. ग़रीबों के लिए काम करने वाली हमारी जैसी संस्थानों की आवाज़ कभी भी दिल्ली तक नहीं पहुंच पाती. यही कारण है कि सौर ऊर्जा जैसी तकनीक से जुड़ी सही नीतियां भी नहीं बन पाती. ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो भी नीतियों से जुड़ा फ़ैसला होता है, वो दिल्ली तक ही सीमित हो कर रह जाता है.”
हरीश हांडे ने आईआईटी से इंजीनियरिंग की, जिसके बाद अमरीका में यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसाचूसेट्स से उन्होंने ऊर्जा इंजीनियरिंग में डॉक्टर की उपाधि हासिल की.
उनका कहना है कि मैगसेसे पुरस्कार के साथ मिलने वाली 50,000 डॉलर की राशि को उन नौजवानों को प्रोत्साहित करने में लगाएंगे, जो ग्रामीण क्षेत्रों की बेहतरी के लिए कुछ करना चाहते हैं.
उनका कहना था कि भारत में कई ऐसे नौजवान हैं, जिनके पास ग़रीबों की ज़िंदगियों में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए बहुत से अनोखे सुझाव तो हैं, लेकिन उन्हें लागू करने के लिए उन्हें सही स्त्रोत नहीं मिल पाते.
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